चमकते चुनावी विज्ञापनों में नारों की उठा-पटक
चुनावी दंगल में पार्टियां ही नहीं होतीं, नारे भी होते हैं। इनकी रोचकता विज्ञापन की जान होती है।चुनावी विज्ञापन पार्टी की सोच और संस्कृति के परिचायक तो होते ही हैं,मतदाताओं को प्रभावित करने का कारगर हथियार भी होते हैं। जो मतदाता काडर वोट से जुड़े नहीं होते और आखिरी समय तक मोल-तोलकर कदम उठाना चाहते हैं,उनके लिए इन विज्ञापनों की अहमियत बड़ी होती है। दिल्ली के अखबारी चुनाव विज्ञापन भी कम दिलचस्प नहीं थे।
यहां चुनावी विज्ञापन की शुरुआत दस साल से बाट जोह रही भाजपा ने की। पहला विज्ञापन 6 नवंबर के अखबार में है जो वास्तव में सदन के नेता सुभाष आर्य की ओर से दिया गया है। "हाय मेरी दिल्ली" वाले मदनलाल खुराना कभी मुख्यमंत्री थे लेकिन बुढ़ापे में बगावत ने नेपथ्य में ऐसा धकेला कि उन्हें "विश्वासघात" तक से छुटकारा पाने के लिए, "दिल्ली के विकास पुरुष" "प्रखर राष्ट्रवादी नेता" और "गरीबों के मसीहा" मल्होत्राजी को सफल बनाने की अपील करनी पड़ी। 12 और 22 नवंबर के इन विज्ञापनों में खुरानाजी की तस्वीर "कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे" वाले अंदाज में है। इसके बाद भाजपा के आधिकारिक विज्ञापन लगभग हर दूसरे दिन छपे जिनमें पारम्परिक से लेकर “आतंकवाद की चौतरफा मार लगातार” तक को मुद्दा बनाकर "महंगी पड़ी कांग्रेस" का नारा दिया गया । भाजपा दिल्ली को "पूर्ण राज्य" का दर्जा भी दिलाएगी। कर्मण्येवाधिकार तो सत्ता हासिल होने पर मिलेगा,फिलहाल वचन के स्तर पर क्यों दरिद्रता दिखाई जाए!
इस प्रतिस्पर्धा में सत्तारूढ़ कांग्रेस लगभग डेढ़ हफ्ते बाद कूदी और अपनी पूर्व-निर्धारित विज्ञापन-नीति के तहत, "विकास का हाथ कांग्रेस के साथ" मानकर आश्वस्त रही। लेकिन "विकास की डोर ना पड़े कमजोर" की गुहार लगा रही कांग्रेस के आक्रामक तेवर 25 नवंबर से देखने को मिले जिसमें भाजपा की दस साल पुरानी सरकार के बारे में पार्टी पूछती है "दिया तो था मौका,लेकिन हुआ क्या?तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा।" धन्धई बुद्धि की व्यावसायिक अधीरता ने,क्या जिंदा क्या मुर्दा,सबको लपेटे में ले लिया। इस विज्ञापन में अशोक-स्तंभ के शेरों की तरह जिन तीन तिगाड़ों की तस्वीर दी गई है उनमें सबसे प्रमुख हैं तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा। वही, दुर्घटना में जिनके निधन के बाद शीलाजी ने मीडिया को बहुत भावुकता के साथ बताया था कि कैसे साहिब सिंह जी बार-बार फोन कर अस्वस्थता के दिनों में उनका कुशल-क्षेम पूछते थे।
इस चुनाव में सपा ने 33, लोक जनशक्ति पार्टी ने 40 और राष्ट्रीय जनता दल ने 5 सीटों पर अपने उम्मीदवार तो खड़े किए लेकिन उनके चुनावी भविष्य का पूर्वानुमान करते हुए,विज्ञापन पर खर्च न करना ही बेहतर समझा। सभी सीटों पर खड़ी बसपा का भी केवल एक विज्ञापन दिखता है जिसमें मायावती "यूपी तो हमारी है अब दिल्ली की बारी है" और "हाथी दिल्ली जाएगा देश को बचाएगा" का सिंहनाद करती दिखती हैं लेकिन साथ में जो तस्वीर छपी है,उसमें लौह-तत्व नदारद है और मायावती का हाथ "अभिवादन" की बजाए "दस्विदानिया" के अंदाज में उठा प्रतीत होता है।
अखबारों के साथ डाइररेक्ट-टू-होम आए पर्चे भी कम रोचक नहीं थे। "भूमिपुत्रों" के हक के लिए मरने-मारने पर उतारू शिवसेना ऐसे ही एक पर्चे पर अपने विराट् हिंदू-हृदय का परिचय देती हुई,"दूध मांगोगे खीर देंगे कश्मीर मांगोगे चीर देंगे" का भूला हुआ नारा याद दिलाती है। इन पर्चों पर प्रायः सभी उम्मीदवारों ने मोबाइल सहित अपने सभी व्यक्तिगत फोन नम्बर दे रखे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि उम्मीदवार जीतने के बाद इन नंबरों पर उपलब्ध होते हैं या नहीं।
इन आरोप-प्रत्यारोपों के बीच, आबादी के साथ बढ़ते "पप्पुओं" की संख्या से चिंतित निर्वाचन आयोग "पप्पू कांट डांस" की तर्ज पर, "पप्पू डज नॉट वोट" के जरिए मतदान न करने वालों पर कटाक्ष करता दिखता है। संभवतः,यह पहली बार है जब सरकारी विज्ञापनों में हिंग्लिश का प्रयोग किया गया है। इसमें अनपढ़ झुग्गीवासियों और ऑटो-रिक्शाचालकों से लेकर "हर खबर की तह में जाने वाले" लेकिन वोट न देने वाले पप्पू पत्रकारों तक पर व्यंग्य किया गया है। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली विधानसभा में 1993,1998 और 2003 के चुनावों में क्रमशः 65, 49 और 47 प्रतिशत ही मतदान हुआ । यह निराशाजनक है कि सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी के बाशिदों में अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता तो खूब बढ़ी है लेकिन मतदान के कर्तव्य-पालन के लिए निर्वाचन आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ता है। संविधान-प्रदत्त शायद ही कोई अन्य अधिकार हो,जिसके प्रति इतने फीसदी लोग उदासीन हों। पहली बार,निर्वाचन आयोग को हम एस एम एस के जरिए वोटरों तक बुनियादी जानकारी मुहैया कराने की पहल करता देखते हैं लेकिन इसके लिए केवल एमटीएनएल से टाई-अप क्यों ? क्या दिल्ली में अन्य सेवा-प्रदाताओं के ग्राहकों को इस जानकारी का अधिकार नहीं है?नैतिकता का तमगा लेकर घूम रहे निर्वाचन आयोग को,कोई ऐसा नंबर लेने की क्यों नहीं सूझी जिसका सभी ऑपरेटरों के ग्राहक उपयोग कर सकें? दिए गए नंबर पर भी, इस लेखक ने अलग-अलग समय पर कम से कम पांच बार मैसेज भेजे लेकिन वे एमटीएनएल को डिलीवर ही नहीं हुए।
"अटौरनी" और "ज्यामिति" की तर्ज पर "नियमितिकरण" जैसे प्रयोग खटकते हैं,फिर भी, कई शब्दों को उनके मूल रूप में लिखा जाना इन विज्ञापनों की खास बात है।"महंगाई" में "ह" पर चंद्र-बिंदु का प्रयोग, मानो इस समस्या को संपूर्णता में प्रकट कर रहा हो। हिंदी को कंप्यूटर-अनुकूल बनाने की जुगत में, हलन्त,नुक्तों और चंद्र-बिंदु या अर्ध-चंद्र के प्रयोग खत्म करने की हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की कोशिश के बावजूद,"ज़रा""ज़िंदगी" और "तेज़" जैसे शब्दों में यथास्थान नुक्तों का प्रयोग सुखद है। "तेरे को-मेरे को" की महानगरीय शैली के बीच ऐसी शाब्दिक-शुचिता स्वागत-योग्य है।
सीलिंग हाल-हाल तक सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा लगता था लेकिन इन अखबारी विज्ञापनों में किसी प्रमुख पार्टी ने इसे नहीं उठाया । महिला आरक्षण पर भी हमाम में सब नंगे नजर आए। अलबत्ता,मुंबई हमलों को भुनाने की कोशिश जरुर हुई- उस भाजपा के द्वारा भी जिसके अरूण जेटली जी ने संवाददाताओं को बताया था कि यह राष्ट्र का प्रश्न है,इसलिए भाजपा इस पर राजनीति नहीं करेगी और उस कांग्रेस द्वारा भी जो कम से कम ऐसे मौकों पर राजनीति से बाज आने की सीख भाजपा को दे रही थी। बहरहाल,सभी पार्टियों के विज्ञापनों को देखकर यही लगता है कि एक और मौका मिलने भर की देर है, दिल्ली में रामराज्य का सपना बस साकार होने ही वाला है । बस चंद घंटों की प्रतीक्षा और कीजिए और देखिए कि छलने के इस हुनर में कौन "महंगा" पड़ा और कौन "भारी" ।
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चुनावी दंगल में पार्टियां ही नहीं होतीं, नारे भी होते हैं। इनकी रोचकता विज्ञापन की जान होती है।चुनावी विज्ञापन पार्टी की सोच और संस्कृति के परिचायक तो होते ही हैं,मतदाताओं को प्रभावित करने का कारगर हथियार भी होते हैं। जो मतदाता काडर वोट से जुड़े नहीं होते और आखिरी समय तक मोल-तोलकर कदम उठाना चाहते हैं,उनके लिए इन विज्ञापनों की अहमियत बड़ी होती है। दिल्ली के अखबारी चुनाव विज्ञापन भी कम दिलचस्प नहीं थे।
यहां चुनावी विज्ञापन की शुरुआत दस साल से बाट जोह रही भाजपा ने की। पहला विज्ञापन 6 नवंबर के अखबार में है जो वास्तव में सदन के नेता सुभाष आर्य की ओर से दिया गया है। "हाय मेरी दिल्ली" वाले मदनलाल खुराना कभी मुख्यमंत्री थे लेकिन बुढ़ापे में बगावत ने नेपथ्य में ऐसा धकेला कि उन्हें "विश्वासघात" तक से छुटकारा पाने के लिए, "दिल्ली के विकास पुरुष" "प्रखर राष्ट्रवादी नेता" और "गरीबों के मसीहा" मल्होत्राजी को सफल बनाने की अपील करनी पड़ी। 12 और 22 नवंबर के इन विज्ञापनों में खुरानाजी की तस्वीर "कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे" वाले अंदाज में है। इसके बाद भाजपा के आधिकारिक विज्ञापन लगभग हर दूसरे दिन छपे जिनमें पारम्परिक से लेकर “आतंकवाद की चौतरफा मार लगातार” तक को मुद्दा बनाकर "महंगी पड़ी कांग्रेस" का नारा दिया गया । भाजपा दिल्ली को "पूर्ण राज्य" का दर्जा भी दिलाएगी। कर्मण्येवाधिकार तो सत्ता हासिल होने पर मिलेगा,फिलहाल वचन के स्तर पर क्यों दरिद्रता दिखाई जाए!
इस प्रतिस्पर्धा में सत्तारूढ़ कांग्रेस लगभग डेढ़ हफ्ते बाद कूदी और अपनी पूर्व-निर्धारित विज्ञापन-नीति के तहत, "विकास का हाथ कांग्रेस के साथ" मानकर आश्वस्त रही। लेकिन "विकास की डोर ना पड़े कमजोर" की गुहार लगा रही कांग्रेस के आक्रामक तेवर 25 नवंबर से देखने को मिले जिसमें भाजपा की दस साल पुरानी सरकार के बारे में पार्टी पूछती है "दिया तो था मौका,लेकिन हुआ क्या?तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा।" धन्धई बुद्धि की व्यावसायिक अधीरता ने,क्या जिंदा क्या मुर्दा,सबको लपेटे में ले लिया। इस विज्ञापन में अशोक-स्तंभ के शेरों की तरह जिन तीन तिगाड़ों की तस्वीर दी गई है उनमें सबसे प्रमुख हैं तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा। वही, दुर्घटना में जिनके निधन के बाद शीलाजी ने मीडिया को बहुत भावुकता के साथ बताया था कि कैसे साहिब सिंह जी बार-बार फोन कर अस्वस्थता के दिनों में उनका कुशल-क्षेम पूछते थे।
इस चुनाव में सपा ने 33, लोक जनशक्ति पार्टी ने 40 और राष्ट्रीय जनता दल ने 5 सीटों पर अपने उम्मीदवार तो खड़े किए लेकिन उनके चुनावी भविष्य का पूर्वानुमान करते हुए,विज्ञापन पर खर्च न करना ही बेहतर समझा। सभी सीटों पर खड़ी बसपा का भी केवल एक विज्ञापन दिखता है जिसमें मायावती "यूपी तो हमारी है अब दिल्ली की बारी है" और "हाथी दिल्ली जाएगा देश को बचाएगा" का सिंहनाद करती दिखती हैं लेकिन साथ में जो तस्वीर छपी है,उसमें लौह-तत्व नदारद है और मायावती का हाथ "अभिवादन" की बजाए "दस्विदानिया" के अंदाज में उठा प्रतीत होता है।
अखबारों के साथ डाइररेक्ट-टू-होम आए पर्चे भी कम रोचक नहीं थे। "भूमिपुत्रों" के हक के लिए मरने-मारने पर उतारू शिवसेना ऐसे ही एक पर्चे पर अपने विराट् हिंदू-हृदय का परिचय देती हुई,"दूध मांगोगे खीर देंगे कश्मीर मांगोगे चीर देंगे" का भूला हुआ नारा याद दिलाती है। इन पर्चों पर प्रायः सभी उम्मीदवारों ने मोबाइल सहित अपने सभी व्यक्तिगत फोन नम्बर दे रखे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि उम्मीदवार जीतने के बाद इन नंबरों पर उपलब्ध होते हैं या नहीं।
इन आरोप-प्रत्यारोपों के बीच, आबादी के साथ बढ़ते "पप्पुओं" की संख्या से चिंतित निर्वाचन आयोग "पप्पू कांट डांस" की तर्ज पर, "पप्पू डज नॉट वोट" के जरिए मतदान न करने वालों पर कटाक्ष करता दिखता है। संभवतः,यह पहली बार है जब सरकारी विज्ञापनों में हिंग्लिश का प्रयोग किया गया है। इसमें अनपढ़ झुग्गीवासियों और ऑटो-रिक्शाचालकों से लेकर "हर खबर की तह में जाने वाले" लेकिन वोट न देने वाले पप्पू पत्रकारों तक पर व्यंग्य किया गया है। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली विधानसभा में 1993,1998 और 2003 के चुनावों में क्रमशः 65, 49 और 47 प्रतिशत ही मतदान हुआ । यह निराशाजनक है कि सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी के बाशिदों में अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता तो खूब बढ़ी है लेकिन मतदान के कर्तव्य-पालन के लिए निर्वाचन आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ता है। संविधान-प्रदत्त शायद ही कोई अन्य अधिकार हो,जिसके प्रति इतने फीसदी लोग उदासीन हों। पहली बार,निर्वाचन आयोग को हम एस एम एस के जरिए वोटरों तक बुनियादी जानकारी मुहैया कराने की पहल करता देखते हैं लेकिन इसके लिए केवल एमटीएनएल से टाई-अप क्यों ? क्या दिल्ली में अन्य सेवा-प्रदाताओं के ग्राहकों को इस जानकारी का अधिकार नहीं है?नैतिकता का तमगा लेकर घूम रहे निर्वाचन आयोग को,कोई ऐसा नंबर लेने की क्यों नहीं सूझी जिसका सभी ऑपरेटरों के ग्राहक उपयोग कर सकें? दिए गए नंबर पर भी, इस लेखक ने अलग-अलग समय पर कम से कम पांच बार मैसेज भेजे लेकिन वे एमटीएनएल को डिलीवर ही नहीं हुए।
"अटौरनी" और "ज्यामिति" की तर्ज पर "नियमितिकरण" जैसे प्रयोग खटकते हैं,फिर भी, कई शब्दों को उनके मूल रूप में लिखा जाना इन विज्ञापनों की खास बात है।"महंगाई" में "ह" पर चंद्र-बिंदु का प्रयोग, मानो इस समस्या को संपूर्णता में प्रकट कर रहा हो। हिंदी को कंप्यूटर-अनुकूल बनाने की जुगत में, हलन्त,नुक्तों और चंद्र-बिंदु या अर्ध-चंद्र के प्रयोग खत्म करने की हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की कोशिश के बावजूद,"ज़रा""ज़िंदगी" और "तेज़" जैसे शब्दों में यथास्थान नुक्तों का प्रयोग सुखद है। "तेरे को-मेरे को" की महानगरीय शैली के बीच ऐसी शाब्दिक-शुचिता स्वागत-योग्य है।
सीलिंग हाल-हाल तक सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा लगता था लेकिन इन अखबारी विज्ञापनों में किसी प्रमुख पार्टी ने इसे नहीं उठाया । महिला आरक्षण पर भी हमाम में सब नंगे नजर आए। अलबत्ता,मुंबई हमलों को भुनाने की कोशिश जरुर हुई- उस भाजपा के द्वारा भी जिसके अरूण जेटली जी ने संवाददाताओं को बताया था कि यह राष्ट्र का प्रश्न है,इसलिए भाजपा इस पर राजनीति नहीं करेगी और उस कांग्रेस द्वारा भी जो कम से कम ऐसे मौकों पर राजनीति से बाज आने की सीख भाजपा को दे रही थी। बहरहाल,सभी पार्टियों के विज्ञापनों को देखकर यही लगता है कि एक और मौका मिलने भर की देर है, दिल्ली में रामराज्य का सपना बस साकार होने ही वाला है । बस चंद घंटों की प्रतीक्षा और कीजिए और देखिए कि छलने के इस हुनर में कौन "महंगा" पड़ा और कौन "भारी" ।
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